नेपाल के बाद मेरी पहली विदेश यात्रा १९८३

1983 में मुझे और मेरे सहयोगी श्री मंटू राम केडिया जी को विशाखापत्तनम में लगने वाले मर्चेंट मिल  के इंजीनियरिंग कार्य के लिए जर्मनी में 3 महीने के लिए SMS, Germany के डुसेलडॉर्फ ऑफिस में पोस्ट किया गया था। नेपाल के सालाना ट्रिप के बाद यह हमारी पहली विदेश यात्रा थी और हम बहुत जोश में थे और आशान्वित थे । उस दौरान कुछ रोचक घटनाएं घटित हुईं और उनमें से कुछ फिर से स्मरण करने लायक हैं। उनमें से कुछ एक का वर्णन मैं यहाँ करने जा रहा हूँ। जब हमलोगों का चयन जर्मनी जाने के लिए हो गया तो ध्यान आया मेरा तो पासपोर्ट भी नहीं था। मेरे बॉस ने थोड़ी डांट भी पिलाई। ऑफिस का दस्तूर था की सभी अफसर अपना पासपोर्ट बनवाा ले और renew करवाते रहे । ऑफिस में एक विभाग इसी काम के लिए था यानि पासपोर्ट वीसा का काम करने करवाने के लिए। ऑफिस वालों ने मेरा पासपोर्ट हफ्ते भर में करवा डाला। वीसा स्टम्पिंग भी हो कर आ गयी। हमदोनों ने गरम कपड़े , टोपी वैगेरह बनवा लिए बाटा के महंगे जुते खरीद लिए । कंपनी के तरफ से इसके लिए अलाउंस भी था। पहले भी लोग US , रूस जाते रहे थे। हम एयर इंडिया के बोइंग 747 से जाने वाले थे।  और हमारा टिकट  ऊपरी डेक यानि क्लब क्लास का था ।  बोइंग 747  को लोकप्रिय रूप से जंबो जेट भी कहा जाता था । हम एयर इंडिया के आतिथ्य से अभिभूत थे। चूंकि 2x2 कॉन्फ़िगरेशन में सिर्फ 22 सीटों के लिए, 5-6 स्टूवर्स और होस्टेस उपस्थिति थे। वे  हर थोड़ी देर  बाद ड्रिंक या टिट्स-बिट्स  के लिए पूछ रहे थे। यात्रा कार्यक्रम का रूट था दिल्ली-रोम-जेनेवा।  जिनेवा से डुसेलडोर्फ तक की कनेक्टिंग फ्लाइट थी स्विस एयर का। विमान ने एथेंस में बिना किसी कारण उतरा जबकि पहला स्टॉप रोम था। और ठहराव कुछ समय का ही था, हमें टर्मिनल भवन में जाने की अनुमति नहीं थी लेकिन कुछ मिनटों के लिए नीचे टरमैक पर उतर आये।  तापक्रम तो 3 डिग्री ही था पर तेज हवा चल रही थी। बहुत ठंढ लगने लगी।  बिना गर्म कपड़े के इसे बरदाश्त करना मुश्किल था, इस कारण हम तुरन्त विमान में वापस भी चले गये।  एथेंस में कुछ सरदार जी भी उतर आये और जमीन को चूमने के बाद प्लेन में वापस जा रहे थे। शायद वे विदेश में रोटी कमाने जा रहे थे।  बाद में पता चला इस अतिरिक्त ठहराव का कारण था रोम में कस्टम कर्मियों द्वारा किया गया हड़ताल।


Kedia and me



L-R, मैं, श्री जी सी प्रसाद, स्व पी एल मोदी, केडिया



रोम में  हम लोग एक ट्रांसिट कार्ड ले कर रोम एयरपोर्ट होकर वापस प्लेन में आ गए। एयर इंडिया यहां खाना लोड करने वाले थे। पर कस्टम के हड़ताल के चलते भोजन लोड करने में असमर्थ था, इसलिए कप्तान ने घोषणा की कि drink is on the house ! यानि यात्री जितना चाहें उतना 'पी' सकते हैं। देश में मैने अबतक व्हिस्की, रम, ब्रैन्डी और बियर ही पी थी।  अब तक के इस सफर में   एअर हॉस्टेस के बार बार ऑफर करने पर पहले ही दो तीन बार वाइन और शैम्पने का सेवन कर चुका था। पर मैंने  इस अवसर का भरपूर लाभ उठाया।  2-3 शैंपेन गटक लिये एक घंटे के फ्लाइट में।  जब विमान जिनेवा पहुंचा तो मै हल्के नशे में था और इस कारण मैं उतरने चलने में थोड़ा सुस्त था। एयर इंडिया की एक महिला ने हमें ढूंढा और बार बार जल्दी चलने तो कहने लगी । जबकि मैं थोड़ा सुस्त था लेकिन केडिया ठीक ठाक था और उसने एक योजना के बारे में सोचा और मुझे जल्दी न करने के लिए धीरे से कहा ताकि हम कनेक्टिंग फ्लाइट को मिस कर दें और जिनेवा में ले ओवर मिल जाएं। हमने इतना सुन्दर सा एयरपोर्ट और ट्रैवलेटर पहली बार  देखा था। भीड़ के साथ यह हम धीमी गति से आगे बढ़ रहे  थे, जबकि बाकी लोग चलते ट्रवेलेटर  पर चल भी रहे थे, उनकी देखा-देखी हम भी इस पर चल सकते थे पर हम इस पर जान बूझ कर चल नहीं रहे थे ताकि देर कर सकू । हमारी योजना काम कर गई और आखिरकार हमारी उड़ान छूट गई । स्विस एयर वालों से अगले दिन शाम की फ्लाइट में जगह दे दी। अब हमारी एकमात्र चिंता यह थी कि बदले हुए योजना के डुसेलडोर्फ में हमारे सहयोगियों को कैसे सूचित  किया जाए क्योंकि वे हमें Airport लेने आने वाले थे। स्विस एयर मदद करने के लिए सहमत हो गया और उन्होंने SMS Dusseldorf कार्यालय को फैक्स  भेज दिया। हमें सभी फूड कूपन के साथ रात भर ठहरने के लिए फाइव स्टार होटल पेंटा ले जाया गया। डिनर पर कुछ और देशी लोगों से मुलाकात हुई।  वो भेल के ऑफिसर्स थे और जर्मनी ही जाने वाले थे। थोड़ी ही दिनों में पता चलने वाला था की   विदेश में देशी दिखने वाले तब कम थे और हम बड़ी आत्मीयता से मिलते थे, चाहे वे पाकिस्तानी ही क्यों न हो।  कभी कभी इतालियन को भी देशी समझ लेते - काले बाल और tanned स्किन धोका दे देता । रेस्टोरेंट में बड़ी भीड़ थे । वेटर खाना लाने में देर कर रहा था । भेल वाले पहले भी यूरोप आ चुके थे।  उन्होंने वेटर को बुला कर डाँट लगाई फिर तो ब्रेड बटर, स्टार्टर तुरंत आ गए। यहां तो शाम ही हुई थी पर हमारे लिए रात के २ बज रहे थे। और हम बहुत भूखे थे।   उस रात हम शायद ही सो पाए क्योंकि यह बर्फ गिरने लगी थी । शिमला कुफ्री में 1968 के कॉलेज टूर में ही मैने पहली और आखिरी बार बर्फबारी देखी थी, हम उत्साहित हो कर बाहर सड़क पर आ गए और बर्फ़बारी का आनंद लेने लगे। हमने  स्विस भोजन का विशेष रूप से नाश्ते में मिले चीज़ का भरपूर आनंद लिया।

अगले दिन हम चारों ओर घूमे और महत्वपूर्ण स्थानों जैसे जिनेवा झील और संयुक्त राष्ट्र के प्रतिष्ठानों और को देख आये। हम कुछ यादगार स्विस क्युरिओ आइटम भी ख़रीदे । इस प्रकार हम स्विट्जरलैंड की पहली यात्रा कर सके । डुसेलडोर्फ में मेरे अल्प जर्मन ज्ञान ने काम किया क्योंकि टैक्सी ड्राइवर हमारे पते पर यानी 26, ओबरबिल्कर एले को अंग्रेजी में समझ नहीं पा रहा था , तब मैंने  जर्मन में उसे "सक्श उन स्वंसिश ओबरबिल्कर अल्ले" ले चलने को कहा । ड्राइवर तुरंत समझ गया और हम ठीक ठाक अपने अपार्टमेंट पहुंच गए।  जर्मन ज्ञान से मेरे साथी शायद थोड़ा ज्यादा ही प्रभावित हो गए।  रेेेलवे स्टेशन या अन्य जगहों पर पूछ ताछ के लिए मुझे आगे कर दिया जाता। एक बार हम लोग राईन नदी पर क्रूज लेना चाहते थे और पूछ ताछ का काम फिर मुझे सौपा गया। मैंने। जर्मन में पूछा "वास ईस्ट ज़ाइट अब्फार्ट वास ईस्ट उन्ड  प्रेइस" Was ist zeit der abfarhrt und preise ?. बस जहाज छूटने का समय और टिकट का दाम पूछा था और काउंटर वाली लड़की ने लम्बी चौड़ी बात जर्मन में कर दी। फिर पल्ले कुछ नहीं पड़ा और हम बैरंग लौट आये।दूसरा वाकया भी रोचक हैं। एक दिन हम लोगों ने हैम्बर्ग का बस ट्रिप बहुत सस्ते में देखा। सभी को अच्छा लगा और मैने पूरे ग्रुप का टिकट ले लिया। पता में मैंने अपने नाम और 26, ओबरबिलिकर एले,  लिखा। टिकट में बस का समय लिखा था 8.00-CA। जाने के दिन हम लोग सुबह से ही किचन में लग गए और पूरे ग्रुप का रास्ते का खाना पूरी, उबले अंडे, आलू भुजिया बना कर केला के साथ पैक कर बस अड्डे जो हॉप्टबानहॉफ यानी मुख्य रेलवे स्टेशन के पास था समय से पहले पहुँच गए। बस का इंतज़ार हमने 9 बजे तक किया  फिर निराश लौट आये। जम कर खाना पीना किया।
बाद में पता चला-‘CA’ का मतलब जर्मन में हैं approximately, करीब करीब इस समय जायेगा। एजेंट ने कहा बस ६ बजे सुबह चली गई और पक्का टाइम बताने के लिए आपको चिठ्ठी भेजी थी। हमारे अपार्टमेंट में फ़ोन नहीं था। मोबाइल तब था नहीं। ऑफिस का फोन न० हमने दिया नहीं। चिठ्ठी के सिवा और कोई चारा ना था। पोस्ट ऑफिस से पता लगाया तो पता चला चूँकि हमारे अपार्टमेंट के लेटर बॉक्स पर मेरे नाम के बजाय हमसे वहाँ पहले ठहरे स्व कुमरेसन का नाम लिखा था अत: डाकिये ने चिठ्ठी लेटर बॉक्स में नहीं डाली । डाकिये ने शहर में किसी और A.K.Sinha को ढ़़ूढा और चिठ्ठी उनके लेटर बॉक्स में डाल दिया । हमारे देश मेंं तो ऐसी स्थिति मेें डाकिए किसी कुएं में चिठ्ठी फेंक आतेे।

Some pictures of German Visit 1983:


मोदी जी, केडिया, मैं, प्रसाद राईन नदी पर एक क्रूश , मैं और हेल्मुट लिटर्स कोलोन, मैं कोलोन मुख्य स्टेशन पर



 . डुइसबर्ग में एक भव्य चिड़ियाघर का दौरा किया.. रांची से प्रस्थान से पहले मेरी छोटी लड़की श्वेता ने कहा था पापा इस जू में जरूर जाइएंगा और डॉल्फिन शो भी देखिएंगा।
Stalactite caves on way to डसेलडोर्फ से हिलचेनबैक के रास्ते में स्टैलेक्टाइट गुफाएँ। उस समय विश्वास ही नहीं हुआ कि 120 किलोमीटर की सड़क यात्रा लगभग 1 घंटे में ख़त्म हो जायेगी!

एक और यादगार ट्रिप जो मैंने जर्मनी में तब किया वो था वुपरटाल का। पता लगा एक मोनोरेल चलती है वुपरटाल तक। मैं और केडिया एक रविवार डुसेलडॉर्फ से इस १३ किलोमीटर की मोनोरेल जिसे जर्मन में स्वाबेबान कहते की यात्रा पर निकल पड़े। शायद यह दुनिया के सबसे पुराने मोनोरेल है। स्वाबेबान का निर्माण 1898 में शुरू हुआ, और 24 अक्टूबर 1900 को, सम्राट विल्हेम द्वितीय ने मोनोरेल ट्रायल रन में भाग लिया और 1901 में रेलवे परिचालन में आया। हम ट्रेन का टिकट ले कर चढ़े। मोनोरेल दो डब्बे का था। हमने टिकट को मशीन में डाल कर पंच कर बैठ गए। एकदम भीड़ नहीं थी। रविवार जो था । करीब बीस स्टेशन आये। वुपर नदी और एक्सप्रेसवे के ऊपर से मोनोरेल दन दानाती चली जा रही थी पर अफ़सोस तब हुआ जब अंतिम स्टेशन सिर्फ ३० मिनट में ही आ गया। हमने सोचा वुपरटाल शहर घूम लेते है। कुछ विंडो शॉपिंग ही कर लेते है। पर रविवार था और सभी दुकाने बंद थी। शहर वुपर नदी के किनारे एक लम्बे स्ट्रिप पर बसा है । हमने सोचा हम वापस पैदल चलते है टिकट के पैसे बच जायेंगे। इतने कम समय लगा था आने में और हमने सोचा दूरी ज्यादा नहीं होगी। वापस पैदल ही चल पड़े। एक जगह एक पब्लिक शौचालय दिखा तो हम उपयोग करने अंदर दाखिल हो गया। हमने एक चकाचक साफ़ टॉयलेट की आशा की थी जैसी एयरपोर्ट , स्टेशन या ऑफिस में दिखते थे। पर हमे निराश होने पड़ा। बहुत तो नहीं पर थोड़ी गन्दगी थी और कुछ दिवाल पर लिखा हुआ भी था, दिवाली से प्लास्टर टूट रहे थे। पब्लिक शौचालय की हालत हर जगह एक जैसी होती है । खैर उस ठन्डे में चलते चलते गर्मी लगने लगी । आखिर दो-तीन स्टॉप चलते चलते थक गये तब हम वापस एक स्टेशन चले गए और डुसेलडॉर्फ के तरफ जाने वाली मोनोरेल में बैठ गए।
महीने बाद हमें दूसरे अपार्टमेंट में जाना पड़ा जो ऑफिस से दूर राइन के उस पार था। यहाँ हमारे सीनियर डॉ पांडेय और PK SINHA भी थे हमारे अलावा। एक दिन पण्डे जी को लगातार उलटी होने लगी। हमारे पास किसी अस्पताल का एड्रेस नहीं था। हम सिर्फ चटर्जी को जानतेथे जो जर्मन सिटीजन है और हमारे सहकर्मी का भाई था। तब इंडिया में एसटीडी शुरू नहीं हुआ था। एक बूथ से चटर्जी को कोड के साथ फ़ोन करना एक नया अनुभव था। टैक्सी से उसने अस्पताल ले गए उन्हें तुरंत एडमिट कर लिया, एडवांस / इन्शुरन्स की फॉर्मेलिटी बाद के लिए छोड़ दी गयी। हमने देखा की यहाँ से लौटने वाले अपने जुते और ऐसी बेकार की चीज़े छोड़ कर चले गए थे। सामनों के खरीद की बहुत सारी रसीद भी लोग फेंक गए थे। हमारे मित्र क वैट रिफंड के बारे में पता था। सने सभी रसीद चुन कर रख लिए और जब लौटते वक़्त उसने वैट के रिफंड अपने सामने से रसीद ले साथ इन चुने रसीद पर भी ले ली तब उसके दूरंदेशी की तारीफ किये बिना न रह सका।



स्वबेबान - मोनोरेल -वुपरटाल
हमारा फ्लैट 26, ओबरबिल्कर एले
Party at 26 Oberbilker Alle..

Busy marketing - My first in Europe-CA stores
हम अप्रैल-1983 में स्वर्गीय डॉ. केजी पांडे के साथ राइन के दूसरी ओर नए अपार्टमेंट में स्थानांतरित हो गए,  श्री पीके सिन्हा एवं श्री एमआर केडिया





लौटने समय पेरिस में कई घंटो का गैप था। हम ट्रांजिट पर चार्ल्स DE गॉल , से बहार आ गए और इस तरह हुई मेरी पेरिस की पहली यात्रा कस्टम के डर से जर्मनी में ख़रीदा कैमरा किसी जर्मन के साथ भारत भेज दिया था। अब पहली बार पेरिस गया था कोई फोटो तो चाहिए था। एक फोटोग्राफर से पोलोराईड फोटो खिचवाई पर ये एतहासिक फोटो कहीं खो गया था। अभी एक पुराने एलबम में दिखा तो सोचा पोस्ट कर दूं फिर मिले न मिले। तब पहले तल्ले तक ही गए थे जहाँ एक रेस्टाँरेन्ट भी था। हमने चाय पी थी और पेस्ट्री भी खाई थी। एयर ईंडिया के आॉफिस से मेट्रो ले कर एईफल तक गए थे और जब ट्रेन Siene नदी के नीचे से गई तो हमारे लिए एक नया अनुभव था। माँलिन रोज तक यहाँ से पैदल गए और बाहर से देख कर वापस आ गए।

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